मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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रविवार, 10 सितंबर 2017

दीपा

दीपा

हर दिन की तरह मुंबई की लोकल ट्रेन खचाखच भरी हुई थी. यात्री भी हमेशा की तरह अंदर बैठे, खड़े थे. गेट के पास कुछ यात्री हेंडल पकड़े खड़े थे तो कुछ बाहर की तरफ झुके हुए थे. दैनिक यात्री रोजमर्रा की तरह लटकने का मजा ले रहे थे. लेकिन आज विशेष था कि मुंबई में पली बढ़ी दीपा पहली बार लोकल ट्रेन में चढ़ने अपने पति के साथ आई थी. पहली बार ससुराल से बाहर आई थी, वह मुंबई विश्वविद्यालय से एम ए का फार्म लेने. दीपा के विवाह को अभी एक महीना भी नहीं गुजरा था. बी एड करते समय ही सगाई हो गई थी और परीक्षा होते ही शादी. शादी के पंद्रह दिनों बाद बी एड रिजल्ट आ गया था. अच्छे नंबर थे. 

दीपा अपने ससुराल की बड़ी बहू बनकर आई थी. इसलिए उस पर वहाँ का बोझ पडना संभावित ही था. घर सँभालते हुए उस नए परिवेश में अपना परिचय देते हुए, अपनी साख बनाते हुए बाहर जाकर नौकरी करना दीपा के लिए असंभव सा था. वैसे भी दीपा को अपने घर से कालेज के अलावा कोई रास्ता भी तो पता न था. अकेली जाती तो भी कहीं कैसे. इन हालातों को देखते हुए फिलहाल उसने कहीं नौकरी का विचार नहीं किया. मन में तो बहुत सबल इच्छा थी कि वह अपने पैरों पर खड़ी होकर कुछ करे किंतु हालात साथ नहीं दे रहे थे. हालातों को समझते हुए उसने बीच का एक रास्ता चुना. घर पर ही ट्यूशन्स शुरु करने का सोचा और साथ ही एम ए करने का. 

आज वह अपने पति के साथ बाहर निकली थी. शादी के बाद पहली बार. घूमने नहीं, मुंबई विद्यापीठ से एम ए का फॉर्म भरने. लोकल ट्रेन की भीड़भाड़ की वह आदी नहीं थी. वैसे तो वह उसी शहर की थी. पर दीपा के अपने घर भी वही सब बंधन थे जो उस समय एक भारतीय परिवार में हुआ करते थे. जैसे अँधेरे के पहले लड़कियों का घर लौटना, लड़कों से संपर्क की मनाही, समय पर घर से निकलना व समय पर घर पहुँचना, अकेले दूर तक जाने की मनाही, इत्यादि. आज के जमाने से परखा जाए तो वह एक डरपोक परिवार था. फलस्वरूप दीपा मुंबई में पली - बढ़ी होने के बावजूद भी शहरी माहौल से अनभिज्ञ रही, वहाँ के रास्तों से अपरिचित रह गई. संक्षेप में कहें तो दीपा डरपोक रह गई. 

दीपा एम ए का फार्म भरकर वापस लौट रही थी. लोकल हमेशा की तरह खचाखच ही भरी थी. स्टेशनों को आते जाते भीड़ - भरी लोकल ट्रेन धीरे - धीरे खाली हो रही थी. गेट पर खड़े लोग भीतर खड़े होते जा रहे थे. जो बाहर लटक रहे थे, वे धीरे धीरे भीतर की तरफ हो रहे थे. कुछ जिनको जगह मिल रही थी सीटों पर बैठ रहे थे. ठाणे स्टेशन आते - आते दीपा व पति को भी बैठने को सीट मिल गई थी. तभी अचानक दीपा की नजर एक नीले शर्ट पहने लड़के पर पड़ी. वह इस चलती लोकल ट्रेन में से सिर बाहर लटकाकर खड़ा था. 

दीपा का माथा फिर गया. पता नहीं क्या हो रहा था उसे. शायद वह अपनी बीती जिंदगी में से कुछ याद कर रही थी. वह अपने आपको नियंत्रित नहीं कर पाई. झटके से उठी और सीधे उस लड़के के पास जाकर, बिना कुछ कहे, उसकी शर्ट पकड़कर, उसे अंदर खींच लिया. उस पर भी शायद मन नहीं भरा था दीपा का. दीपा ने उसे घूरते हुए, कड़े स्वर में डाँटते हुए, कहा अंदर खड़े हो जाओ समझे, जगह है ना, फिर बाहर क्यों लटक रहे हो. लड़का परेशान! ये कौन मेरी आजादी में खलल डालने चली आई. दूसरे यात्री आश्चर्य से व पति जलती हुई नजरों से दीपा को घूर रहे थे. वह सत्रह अठारह साल का लड़का भला क्यों उसकी बात मान ले ? वह तो फिर पहुँच गया वापस अपनी जगह पर. 

दीपा के पति, दीपा की इस हरकत पर नाराज हुए और पास जाकर दीपा को हाथ से खींचकर सीट पर लाकर बैठा दिया. दीपा ने पति की इस हरकत को अपने स्वाभिमान पर प्रहार सा महसूस किया. किसी को समझ नहीं आ रहा था कि दीपा ने ऐसी हरकत क्यों की. दीपा को भी शायद पता नहीं था कि इस जन-वन में किसी को किसी की नहीं पड़ी है. भावनाएँ मर चुकी हैं. किसी के प्रति संवेदना उनके काम में दखल माना जाता है यहाँ. 

फलस्वरूप दीपा दोनों हाथों में मुंह छुपाकर फफक - फफक कर रो पड़ी. कमल, दीपा के पति को जैसे काटो तो खून नहीं. क्रोध उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था. पर वे सँभले हुए थे. हो सकता था कि उनको दीपा की मानसिकता का ज्ञान था. दीपा से इस प्रकार की प्रतिक्रिया का अंदाजा न उस लड़के को था, न दीपा के पति को और न ही अन्य मुसाफिरों को. 

पास बैठी एक बुजुर्ग महिला ने पर्स से पानी का बोतल निकाला और दीपा के सिर पर प्यार से हाथ फेरकर कहा – ‘’क्या हुआ बेटा, चुप हो जाओ, पानी पी लो.’’ दीपा के पति से पूछा : अचानक इन्हें क्या हो गया? पति से उत्तर मिला - इनका सत्रह - अठारह बरस का भाई, आज से लगभग दो साल पहले, इसी तरह लोकल ट्रेन से घर आ रहा था. वह भी भीड़ के कारण बाहर लटककर सफर कर रहा था. एक जगह उसका सर किसी खंभे से टकराया और वह चलती ट्रेन से गिरा पड़ा. बस... ....

बाकी बात उनने जा इशारे से समझा दिया. सारे यात्रि जो अब तक दीपा के बारे कही जाने वाली बातें सुन रहे थे, यह सब जानकर अचानक भावुक हो गए. ओह !!! कहते हुए सभी यात्रियों में इसी विषय पर बातें चल पड़ी. वह लड़का भी बातों की भावनाओं में आकर अंदर की एक खाली सीट पर बैठ गया. बातों - बातों में अगला स्टेशन भी आ गया. दीपा ने देखा वह लड़का अंदर सीट पर बैठ गया था. 

उसने दीपा की हालत देखी थी, तो कुछ कह नहीं पाया था. जब पति के साथ दीपा उतरने लगी गाड़ी से - तब लड़के ने सिर्फ इतना कहा - दीदी - "आई एम सॉरी दीदी."
दीपा अभी अभी शांत हो पायी थी. लड़के की बात सुनकर उसकी आँखों की कोरें फिर भीग गई. दीपा ने ममता भरा हाथ उसके सिर पर फेरा और आगे बढ़ गई. 

सबने देखा दीपा को अपनी आँखों की नम कोरों को पोंछते हुए.

.........

2 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय अयंगर जी -- आपकी रचना में जीवन का एक बहुत हृदयस्पर्शी चित्र देख कर आँखें नम हो आईं | एक भुगतभोगी ने किसी अन्य के घर के आँगन में अँधेरा होने से बचा लिया और साथ ही उसके जीवन के अनमोल होने की सीख भी | किशोरवय के लोग नई उम्र के जोश में रोंमांच में स्टंट दिखाने के चक्कर में अपनी जान की कीमत नहीं जान पाते औरअपनों के स्नेह को अनदेखा कर अपनी अनमोल जान गँवा बैठते हैं --- जो अपनों को हमेशा के लिए पीड़ा में डुबो देती है | नायिका दीपा के माध्यम से आपने भाई को असमय खोने वाली ,पीड़ा में डूबी बहन का जीवंत वर्णन किया है | आपको बधाई और हार्दिक शुभकामना ---

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद आपका रेणु जी.
    आपके सहृदय शब्दों में प्रशंसा के लिए.
    आभार.
    अयंगर

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Thanks for your comment. I will soon read and respond. Kindly bear with me.