मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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मंगलवार, 29 मार्च 2016

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता.
आप अपनी माताजी के साथ दिल्ली घूमने जाते है. वहाँ कुतुब मीनार के प्राँगण में आपका की पुराना परिचित मिल जाता है. आप उससे बातें करने लगते हैं बात किसी गलत मोड़ पर मुड़ जाती है और परिचित कह पड़ता है कि यदि आप अपनी माँ से प्यार करते हैं , उनका सम्मान करते हैं तो सबके सामने यहाँ आप उन्हें प्रणाम करेंगे. आपको लगता है कि माता को प्रणाम करने में क्या हर्ज है, क्या असुविधा हो सकती है? किंतु क्या माता को प्रणाम करने के लिए किसी के कहने की जरूरत है. या कोई कहे तो माता को प्रणाम किया जाए? माता को प्रणाम करना निजी मानसिकता है और कोई अपने मन से जब चाहे कर सकता हूँ लेकिन किसी के कहने से उसे दर्शाने के लिए नहीं कि वह अपनी माँ का आदर करता है. इसकी कोई आवश्यकता महसूस नही होती कि उसे विश्वास दिलाया जाए कि वह अपनी माता का सम्मान करता है.

आप रोज प्रातः या विशिष्ट अवसरों पर , त्योहारों पर , जन्मदिन या सालगिरह पर घर पर स्वेच्छा से माता को और अन्य बड़ों को प्रणाम करते होंगे. यह आप अपनी स्वेच्छा से करते हैं. लेकिन किसी के जबरदस्ती करने पर ऐसा करने में भी संकोच होता है कि क्या हम यह किसी तीसरे को खुश करने के लिए करते हैं. क्या यह जरूरी है कि आप अपनो का सम्मान करने की तसल्ली उसे (किसी अन्य को) भी कराएँ. आपका तो पता नही कितु मेरा तो स्वाभिमान कहिए या आत्मसम्मान बीच में आता है कि वह कौन है कि उसे मेरी भावनाओं की तस्ल्ली कराऊँ.
ऐसा ही स्वाभिमान हिलोरें मारता है जब कोई मुझे जबरन बारत माता की जय या वंदे मातरम का उद्घोष करने को कहता है. में स्वेच्छा सेकितनी बार भी नारे लगाऊँ लेकिन किसी के जबरदस्ती करने पर एक बार भी लगाना जायज न समझूँ. वैसे यह तो इंसान की फितरत में ही है कि जिस काम के लिए उसे मना कीजिए वह काम करना जरूर चाहेगा और किसी काम के लिए जबरदस्ती कीजिए उसे वह करने से कतराएगा.
पति-पत्नी अपने प्यार का इजहार एकाँत में चुंबन से किया करते हैं . किसी के सामने इसे निरूपित करने के लिए यदि उन्हे ऐसा करने के लिए कहा जाए तो ???
आज हमारे देश में कुछ ऐसा ही वातावरण बनाया जा रहा है. लोगों को प्यार से नहीं जबरदस्ती से मनाया जा रहा है. किसी तरह के काम को करने या न करने को बाध्य करने की कोशिश की जा रही है. इसलिए जनता भढ़क रही है और एक असहनीय वातावरण निर्मित हो रहा है. जैसे कहा जा रहा है कि अगर भारत में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा. हर भारतीय को अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए भारत माता की जय कहना होगा.  गोमाँस भक्षक पाकिस्तान जाएँ. इत्यादि इत्यादि. माननीय पीठाधीश भी कह उठे हैं कि साईबाबा की पूजा अवैध है किसी को उनकी पूजा नहीं करनी चाहिए. उनके मंदिरों में तोड़फोड़ भी किए गए. क्या इस तरह के जोर जबरदस्ती से लोगों को बदला जा सकता है? यदि हाँ तो कीतने लोगों को कितने समय के लिए? तरस आता है कि उन्हें इतनी भी समझ नहीं है कि स्थिर बदलाव प्यार व प्रेम से लाया जा सकता है भय से नहीं. आतंक व भय से रोष जागेगा और जब बढ़ जाएगा तो रोष ज्वाला का रूप लेकर धधकती आग में सब कुछ जला कर रख देगी. फिर कुछ न बचेगा राख के सिवा. ये कट्टर हिंदूवागृदी यह क्यों समझ नही पा रहे हैं या नहीं समझना चाह रहे हैं कि ऐसे कट्टरवाद को अपना कर वे हिंदुत्व का भला तो दूर बुरा ही कर रहे हैं.
इस देश में जहाँ संविधान प्रत्येक नागरिक को मुलाधिकार के तहत अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता देता है , वहाँ आप किसी भी दूसरे नागरिक को कुछभी करने या कहने के लिए बाध्य नहीं कर सकते . हाँ प्यार से आप कुछ भी करवा ले कहलवा लें. जहाँ लोग कहते फिरते हैं कि मैं तुम्हारे लिए अपनी जान भी दे सकता हूँ.. वहाँ ध्यान रहे जान दे सकने के बारे में जोरस देकर कहा गया है लेकिन जान लेने का अधिकार नहीं दिया गया है.
यहाँ तक, जब जनता के कुछ सदस्य इस तरह के कारनामों में लिप्त हैं इसे विभिन्न तरह की हरकतों मं से एक माना जा सकता है किंतु सरकार के नुमाइँदे भी इसी तरह के वक्तव्य दिए जा रहे हैं. कुछ साँसद विधायक भी इसमें लिप्त नजर आ रहे हैं. उन सबके बावजूद सरकार चुप है. इसका क्या मतलब निकाला जाए. मेरी समझतो इतना ही कहती हैकि सरकार की भी इसमें साठ गाँठ है. वह किसी तरह का रोक न लगाकर इन कट्टरवादी ताकतों को सहारा दे रही है.
भाजपा से संबंधित संगठनों ने एक नई राह भी चुन ली हिंदुत्व को बढ़ावा देने की कि जो इस रास्ते में रोड़े अटकाए उसे राष्ट्रदोही यादेश द्रोही घोषित कर दिया जाए. सरकार ने  उन्हें सरे आम छूट दे रखी है ऐसा करने की. जो उनके कार्यक्रम के विरुद्ध है सब देशद्रोही करार दिए जा रहे हैं.  पता नही संविधान की कौन सी दारा उन्हें यह अधिकार देती है.
इन कट्टर वादियों को कैसे समझाया जाए कि देश में सैहार्द का ऐसा माहौल बनाया जाए कि लोग गूढ़ तथ्यों को समझें. उनमें देश प्रेम जागे और उसके बाद उनसे कहा जाए कि इसका इजहार करने के कई तरीके हैं – जैसे जय हिंद, जय हिंदुस्तान, हिदुस्तान जिंदाबाद, जय भारत, भारत माता की जय, इंकलाब जिंदाबाद, वंदेमातरम, इत्यादि इत्यादि तो वे स्वेच्छा से ही किसी एक को चुनेंगे. और तब आपको ज्ञात हो जाएगा कि कौन देश प्रेमी है और कौन नहीं. इस प्रकार के आतंकी दबाव से लोग बिफरेंगे ही और देश में गलत माहौल पैदा हो जाएगा
विश्वविद्यालयों में पिछले कुछ वर्षों से छात्रसंघ के चुनाव बंद कर दिए गए थे. भाजपा सरकार के आते ही वे चुनाव फिर से शुरु कर दिए गए. अब फिर छात्रसघ अपनो अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ने लगे. जहाँ जहाँ भाजपा के संगठन उभरे वहाँ तो शाँति बनी रही लेकिन जहाँ जहाँ अन्य संघ उभरे वहाँ भाजपानीतों ने अशाँति फैलाने की पूरी कोशिश की . कुछ जगह सफल भी हुए.  इस तरह की राजनीति समजने में क्या दे की जनता असमर्थ है. क्या जनता इतना अनपढ या मूर्ख है. पता नही ये
राजनीतिज्ञ क्या समझते हैं किंतु जनता जो समझती है उसका असर तो 2019 मे दिख ही जाएगा.
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सोमवार, 28 मार्च 2016

व्यावहारिक हिंदी

व्यावहारिक हिंदी

भाषा का ज्ञान पूरा तभी माना जाता है जब उसे भाषा के व्याकरण पर विशेष पकड़ हो. सही में कोई भी लेख , कविता , निबंध या कोई भी अन्य रचना मनोरम तभी हो पाती है जब उसमें व्याकरण की त्रुटियाँ न हों.  इन सबके बावजूद भी कई बार संदर्भानुसार वातावरण की बोली का भी प्रयोग करना जरूरी हो जाता है, जो कहानी, कविता या लेख को उसका उपयुक्त वातावरण प्रदान करती है. जिससे कहानी प्रवाहमयी हो जाती है. वैसे कविता में व्याकरण का बंधन तो कम है किंतु उसमें अलंकारों का महत्व बढ़ जाता है.

इन सबके बावजूद भी हिंदी में कई ऐसे व्यावहारिक पद समा गए हैं जो अक्सर सुनने में आते हैं. कभी कभी लेखन में भी दीख पड़ते हैं. पर वे व्याकरण व सटीकता की दृष्टि में खरे नहीं उतरते.

उदाहरण के तौर पर बहुत ही प्रचलित वाकया लीजिए... रेलगाड़ी में सफर करते वक्त कोई सहयात्री पूछ ही लेता है - भाई साहब फलाँ स्टेशन कब आएगा ?  पूछने वाला शख्स व जवाब देने वाला दोनों जानते हैं कि सवाल व्याकरण की दृष्टि से व्यवहारिक सही नहीं है. लेकिन जवाब दिया जाता है कि भाई जी फलाँ बजे के लगभग आएगा. रेल चल रही है, स्टेशन अपनी जगह पर है किंतु सवाल ऐसे ही पूछा जाता है और जवाब भी ऐसे ही दिया जाता है.  भले ही गलत हो किंतु अब यही रवैया नियम बन गया है. ऐसे ही पूछना है और ऐसे ही जवाब देना है.

यदि राह में कोई साथी थैले में कुछ लटकाए जाते मिल गया और आपने पूछ लिया कि यार कहाँ जा रहे हो .. संभवतः जवाब होगा – आटा पिसाने / पिसवाने जा रहा हूँ. आप भी वाकिफ हैं और आपका दोस्त भी, कि पिसाना आटा को नहीं गेहूँ को है फिर भी वह ऐसे ही जवाब देगा और आप ऐसे ही समझते जाएंगे. उस चक्की को जहाँ गेहूँ पीसा जाता है  गेहूँ चक्की नहीं बल्कि आटा चक्की कहते हैं. सबको समझ ठीक आ जाता है. मेरी समझ से यह त्रुटिपूर्ण होते हुए भी इतना व्यवहारिक हो गया है कि इसी तरह सभी सही अर्थ समझ जाते हैं. सौहार्द्र, ब्रह्मा, शृंगार (श्रृंगार),  चिह्न (चिन्ह) कुछ ऐसे ही शब्द हैं जिनकी त्रुटिपूर्ण लिपि भी लोगों को सही समझ में आ जाती है.
प्रकृति के परिवर्तनशीलता के नियमाँतर्गत ही भाषा भी परिवर्तित होती रहती है
इसी कारण भाषा ने प्राकृत से हिंदी खड़ी बोली तक का सफर तय किया. यह केवल हिंदी के साथ ही नहीं बल्कि विश्व की सभी भाषाओं के साथ हुआ है और होता भी है. इसी परिवर्तन के दौर में हिंदी के कई भ्रामक शब्द व तौर तरीके इसमें घर किए जा रहे हैं. यदि व्यावहारिकता में बह गए, तो ये ही कल रूढ़ शब्द बन कर साहित्य में समाएंगे. यही नियम है. इसकी गति को रोकना किसी के बस में नहीं होता. प्रिंट मीडिया इन शब्दों के रूप विशिष्ट पर जोर देकर सही पद के प्रयोग को बढ़ावा दे सकती है.

उदाहरण के तौर पर शब्द कापड़िया यानी कपड़ेवाला. अक्सर यह कपाड़िया हुआ जाता है. कपड़ा से कापड़िया के बदले लोग कपाड़िया का उच्चारण शायद आसानी से कर लेते हैं. ऐसे ही एक नाम है डिंपल कपाड़िया.

इसी तरह माँकड़ शब्द मनकड़ (वीनू मनकड़-अशोक मनकड़),

एक शब्द है अभयारण्य – अरण्य जिसमें भय न हो. अक्सर वन्य जीवों को यह सुविधा प्रदान की जाती है कि वे किसी वन विशेष में बिना किसी भय के विचरण कर सकें. हमारे साथी उच्चारण की गलतियों के कारण इसे अभ्यारण्य कहते व लिखते हैं. जो गलत है. उनके साथियों को चाहिए कि इसमें सुधार करें और उन्हें सही कहना लिखना सिखाएं. छोटी उम्र में तो चल जाता है किंतु आगे बढ़कर इस तरह की गलतियाँ कष्टकारी हो सकती हैं.

हृषि कपूर शब्द बदलते बदलते ऋषिकपूर हो गया है और रिषि कपूर होने के काफी करीब है. ऋतु (मौसम) बदलकर रितु हो ही गया है. बहुत सारी लड़कियाँ अपना नाम रितु ही लिखती हैं या लिखना पसंद करती है . हो सकता है कि इसका कारण ऋ लिखने की दुर्गमता ही हो. वो दिन दूर नहीं जब लोग हृषि कपूर को रिशि कपूर भी लिखेंगे. व्यावहारिक तौर पर यह स्वीकार्य भी हो जाएगा.

शब्द बहुल व बाहुल्य की आपस में भिन्नता का ज्ञान न रखने वाले इन्हे आपस में बदलने में कोई हर्ज महसूस नहीं करते. बाहुल्य एक संज्ञा है और बहुतायत को दर्शाता है जबकि बहुल एक विशेषण है और अधिकता को सूचित करता है.

वैसे ही फारसी कागज शब्द दस्तावेज (Document) के अर्थ में बहुवचन कागजात बन जाता है. जबकि व्यवहार में लोग कागजातों  शब्द का प्रयोग करते हैं जो गलत है.

उत्तम शब्द के साथ उत्तमतर व उत्तमोत्तम शब्द चलते हैं किंतु बहुत उत्तम व अति उत्तम, सर्वोत्तम शब्दों का भी प्रचलन है. वैसे ही किसी के आवभगत के लिए आने वाले के लिए – आगत शब्द का प्रयोग होता है. अब आदत सी बन गई है कि हर कार्य में शुभेच्छा जोड़ी जाए तो उसे सु - आगतम कर दिया जो स्वागतम बन गया. लोगों को इससे तसल्ली नहीं हुई तो और अच्छे स्वागत की सोचे और एक और सु आगे लगा दिया. अब यह हुआ सु – स्वागतम. जरा सोचिए आप चार सुसु लगा दीजिए तो क्या आवभग बढ़ जाती है. अरे भई स्वागत ठीक ठाक कीजिए स्वागतम ही सब कुछ सँभाल लेगा. इन सुसु - आगतम से कुछ होने वाला नहीं है – भाषा बिगाड़ने व चापलूस कहलाने के अलावा.

इसी कड़ी में एक बात और भी है 108 श्री तिरुपति वेकटेश्वर बालाजी. यहाँ 108 का क्या तात्पर्य रहा. क्या यह चापलूसी की हद नहीं है. श्री मतलब ही संपदा, ऐश्वर्य, मान मर्यादा है. 108 का मतलब की उनका ऐश्वर्य व मान मर्यादा 1089 गुना है. यहाँ किसका किसके साथ होड़ चल रहा है. सारे ही भगवान माने जाते हैं तो सब बराबर क्यों नहीं. इन अंध धर्मगुरुओं के पीछे ऐसी हरकतें करते रहेंगे तो लोग भक्त नहीं मूर्ख समझेंगे और उस भगवान को क्या समय लगने वाला है, आपके कर्मों को जानने में. हम भाषा में ऐसे प्रयोग को वर्जित करें. सुनने में तो आया है कि फलाँ जाति के लोग तीन श्री लगाते हैं तो हमारे जाति में पाँच श्री तो लगने ही चाहिए और ऐसी प्रथा शुरु की गई है.

फुट का बहुवचन फीट व फुटों दोनो चल रहे हैं. यानि उस भाषा से व्याकरण भी साथ लेते  रहे हैं. इस पर गूढ़ विचार जरूरी है अन्यथा हिंदी भाषी को न जाने कितने व्याकरण पढ़ने पड़ेंगे और यदि कहीं कोई टकराव रहा तो अजीबोगरीब स्थति पैदा हो जाएगी. 

यह तो एक उदाहरण मात्र के लिए लेख है ताकि लोगों की दृष्टि को इस तरफ मोड़ा जाए और ध्यानाकर्षण हो. ऐसे अनेकों उदाहरण होंगे जिन्हें पाठकगण खुजद ही खोज समज लेंगे.

आशा है कि यह लेख ध्यानाकर्षण के मेरे मंतव्य को पूरा करेगा. इस लेख के लिए प्रेरणा श्री एम. एस सिंगला जी द्वारा प्राप्त हुई जिनका मैं आभार व्यक्त करता हूँ.
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