मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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सोमवार, 19 दिसंबर 2016

हार का उपहार

 

     हार का उपहार

बरसों परवानों को, दीपक की
लौ में जलते देखा है,
शमा के चारों ओर पड़े
वे ढेर पतंगे देखा है.

कालेज में गोरी छोरी को
घेरे छोरों को देखा है,
खुद नारी नर की ओर खिंचे,
ऐसा कब किसने देखा है.

उसने क्या देखा, क्या जाने,
किसकी उम्मीद जताती है,
कहीं, ढ़ोल के भीतर पोल न हो,
यह सोच न क्यों घबराती है.

वह करती रहती नादानी,
आदर सम्मान जताती है,
इन सबसे भी खुश ही तो है
फिर मंद-मंद मुस्काती है.

वह दिल के एक मुहल्ले में,
अपना घर द्वार बनाती है,
वह इन अंजानी गलियों में,
अपनी पहचान बनाती है.

क्या देखे अपनी चाह में,
क्या है उसकी निगाह में,
खुद शमा जलती रहे,
रात काली स्याह में.

ऐ खुदा तू ये बता,
हैं यहाँ क्या माजरा,
शमा पतंगे क्यों ढूंढे
है तेरा ही बस आसरा.

एक ऐसा रिश्ता, जिसको वे
नाम नहीं देना चाहें,
इक दूजे को किए याद बिना
कुछ पल भी ना रह पाएँ.

एक ऐसा रिश्ता,
जिसमें प्यार हो,
ममत्व हो,
कच्चे धागों बंधन हो,
कोई भाभी हो, ना मासी हो,
कोई देवर ना, कोई साली हो,
बँधकर रिश्तों की मर्यादा में,
कोई शहजादा, ना शहजादी हो,
पर हर पल की खुशहाली हो,

वह रिश्ता जिसमें प्यार का हर
पाक-स्वरूप मिला जाए.
जो किसी भी जाने अनजाने
रिश्तों के हद में न रह जाए,

न किसी नाम में बँध पाए,
ना किसी नाम से बँध पाए,
अच्छा ही हो गर इसको,
कोई नाम नहीं जो दे पाएं.

कोशिश हो नाम दिलाने की,
गर दे पाए तो हार ही है.
इस जीत में उनकी हार सही,
इस हार में एक उपहार तो है.
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