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शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

पारिवारिक जिम्मेदारियाँ

पारिवारिक जिम्मेदारियाँ

हर व्यक्ति चाहता है कि सेवा निवृत्ति तक उसकी सारी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभ जाएं और वह कम से कम जिम्मेदारियों साथ जीवन व्यतीत कर सके. यह अलग बात है कि इनके बावजूद भी यदि कोई जिम्मेदारी रह जाती है तो भी वह उसे खुशी खुशी निभाता है.

इसके लिए सर्वोत्तम तरीका है कि वह अपने सेवानिवृत्ति समय से उल्टे गणित लगाए कि किस तरह वह अपने जिंदगी की प्लानिंग करे. मान के चलें कि कोई व्यक्ति 60 बरस की आयु में सेवानिवृत्त होने वाला है. उस उम्र तक वह साधारण जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहता है. याने बच्चों की पढ़ाई, शादी इत्यादि. मकान बनाने का काम तो किसी भी वक्त हो सकता है.

बच्चे की पढ़ाई यानी कम से कम - 17 वर्ष स्कूल में, 5 कालेज में.उसके बाद दो –तीन नौकरी में... यानी कुल 25 बरस, उसके बाद शादी. यानि आपके बच्चे की उम्र कम से कम 25 बरस की होने पर ही आप उसके शादी की सोच सकते हैं.

लेकिन यह तो कम से कम की बात है. यदि शादी के बाद तुरंत बच्चा न हुआ तो कुछ समय उसके लिए भी रखना पड़ेगा. फिर बच्चा किसी क्लास में फेल हो गया हो या किसी कारण से परीक्षा दे नहीं पाया हो या फिर किसी तैयारी के लिए ड्राप ले लिया हो तो  ??? इन सब के लिए भी आपको वक्त रखना होगा. मान लीजिए 2-3 साल रख लें. यदि सब सही रहा तो बच्चा कुछ और साल नौकरी कर लेगा. जिंदगी में स्थिर होने की ओर बढ़ेगा. तो आपको बच्चे की शादी के लिए कोई 28 बरस चाहिए. आप 60 में सेवा निवृत्त होंगे . माने आपके 32 वें साल की उम्र में या पहले उसका जनम हो तो मामला फिट बैठेगा. यानी आपको शादी के बाद तुरंत बच्चे से परहेज न हो तो ज्यादा से ज्यादा 32 वर्ष की उम्र तक शादी के लिए रुक सकते हैं. लेकिन व्यावहारिक तौर पर ऐसा होता नहीं है. नए शादी शुदा भी चाहते हैं कि कुछ मजा मस्ती करें और तीन चार वर्ष बाद ही परीवार बढ़ाने की सोचें. इसलिए साधारणतः व्यक्तिको 25 से 28 की उम्र के बीच शादी कर लेनी चाहिए जिससे थोड़ी बहुत आगे पीछे भी होने पर सब अपनी सीमा में रहता है. प्लान करने पर भी परिवार बढ़ाने में देरी किसी और कारणों से हो सकती है. सबका ख्याल रखना जरूरी होता है. आप अनहोनी की उम्मीद तो मत कीजिए, किंतु उसको सहने की क्षमता तो बनाए रखिए.
पर इन दिनों अक्सर देखा जा रहा है कि नई पीढ़ी का यदि अपने प्रेमपात्र के साथ संबंध सही रास्ते बढ़ा तो शादी उनकी मर्जी से हो जाती है. यदि नहीं तो उनमें शादी के प्रति नफरत की भावना जागने लगती है. इस भावना को सार्थक करने के लिए वे नए नए बहाने ढूढते हैं. मैँ यहाँ इसा सवाल का हल ढूंढने चला हूँ.

आज के नवयौवन परिवारों के घरों में पति पत्नी दोनों ही मुखिया हैं. बराबरी का हक रखते हैं. स्वाभाविक है कि दोनों हमेशा एक मत नहीं रह सकते.  दो व्यक्तियों के बीच मतभेद तो स्वाभाविक हैं. अब इसे सुलझाए कौन और मामला सुलझे तो कैसे ? घर में तो दो ही जीव हैं और उनमें मतभेद हैं. संयुक्त परिवार से अलग हो चुके हैं तो स्वाभाविक ही है कि किसी के भी अभिभावकों के पास जाने की सहमति बन भी नहीं पाएगी.

ऐसे ही वाकए दरार लाने का काम करते हैं और संबंधों को कमजोर बना देते हैं. आप माने या ना माने ऐसे ही छोटे - छोटे वाकए इकट्ठे होकर एक दिन विशालकाय डायनासोर का रूप धारण कर परिवार में फूट के बीज बोते हैं. जो अंततः तलाक की ओर बढ़ने लगता है.

ऐसे समय में घर में एक बच्चे का होना बहुत ही लाभ दायक होता है जो उन दोनों के लिए मुख्य होता है और आपसी बंधन का कारक बनता है. लेकिन आज के पाश्चात्य सभ्यता में सराबोर नई पीढ़ी तो जल्दी  वंशज भी नहीं चाहती. इसके कई कारण हैं... जिनमें प्रमुख हैं...नौकरी में स्थिरता, गाड़ी – बाड़ी का प्रबंधन, घर में भाई - बहनों की पढ़ाई और / या शादी  इत्यादि. इन सबके चलते नई पीढ़ी बच्चे की जिम्मेदारी से भागती है. इसमें परिवार में आती कमाई भी अपनी पात्रता निभाती है. दोनों को आत्मनिर्भरता चाहिए पूरी तरह.

अब आती है बात नई से अगले पीढ़ियों के बच्चों की. औसतन हर घर में दोनों अभिभावक नौकरी पेशा हैं. उनके पास बच्चों के लिए उतना वक्त तो है ही नहीं जितना कि बच्चे को पहले मिलता था. और तो और उनसे दो पीढ़ी पहले वाले अभिभावकों के बराबर भी इन पीढ़ियों के पास समय नहीं है बच्चों के लिए, क्योंकि दो पीढ़ी पुराने अभिभावक – सामान्यतः दोनों नौकरी पेशा नहीं हुआ करते थे. इसलिए एक का पूरा समय और दूसरे का आँशिक समय बच्चे को मिल जाता था.

अक्सर ऐसे अभिभावक बच्चे को पैसों की भरपूर सहायता करते हैं. जिसके चलते बाजार की सभी सुख सुविधाएँ बच्चे को हासिल हो पाती हैं. सलाहकारों की तो हमारे देश में कमी है ही नही. बिन बुलाए आ जाते हैं और मुफ्त में सलाह दे जाते हैं. किसको कैसी संगत मिलती है, ये कौन जाने. ऐसी हालातों में, मजबूरी में ही सही, समय – बे - समय सही या गलत निर्णय लेते – लेते, ये बच्चे बहुत छोटी उम्र में ही परिपक्व होने लगते हैं. आज की रिटायर्ड पीढ़ी जरा सोचे कि किस उम्र तक वे घर से बाहर निर्वस्त्र जा पाते थे. अब एक - डेढ़ बरस के बच्चे को बिना वस्त्रों के बाहर ले जाने की कोशिश कीजिए... मजाल कि आप ऐसा कर सकें कि वह चला जाए... तहलका मचा देगा..

ऐसे हालातों में आज बच्चे अक्सर छोटी उम्र से ही अपने फैसले खुद करने को मजबूर हो जाते हैं. हालाँकि बच्चे मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार नहीं होते किंतु हालातों के चलते उन्हें निर्णय लेना ही पड़ता है. वे ऐसे में गलतियाँ भी करते हैं और उसको भुगतते भी हैं. इस तरह  अब बच्चे अपनी काफी कुछ परवरिश खुद ही कर लेते हैं. इन हालातों ने बच्चें में आत्मनिर्भरता का भाव भर दिया है. सही या गलत, पर उनमें आत्मनिर्भर होने का भाव कूट कूट - कर भर जाता है. अक्सर यह अति आत्मनिर्भरता को जन्म देता है. और जब जब ऐसा होता है उसकी कीमत उन बच्चों को चुकानी पड़ती है.

ऐसे अति के कई निर्णयों में एक प्रमुख है अपना जीवन साथी चुनना.

पहले तो बच्चे अपनी दोस्ती को परख नहीं पाते हैं. सही सलाहकारों के आभाव में भ्रातृ / अनुजा प्रेम व शृंगारिक प्रेम में भेद कर पाना उनके लिए मुश्किल हो जाता है. उनको दोस्ती व रोमाँस में फर्क करना नहीं आता, जिससे असमंजस की सअतिति बनी रहती है. वे समझ भी नहीं पाते कि कब प्रेम का एक रूप दूसरे में परिवर्तित हो जाता है. इसके चलते वे गलत कदम उठा लेते हैं और अंजाम को भुगतते हैं. ऐसी संभावनाएं स्कूल की उच्च कक्षाओं से शुरु हो जाती है और कालेज व नौकरी तक चलती ही रहती है. ये आठ दस बरस बच्चे के जीवन के बहुत ही कीमती होते हैं. इस वक्त उनको हर क्षण अभिभावकों का साथ चाहिए और इसकी कमी उनके जीवन को कई बार अनचाहा मोड़ दे जाती है. करीब 20 फीसदी में समस्या अरुचिकर हालात में आ जाती है.

शृंगारिक प्रेम को अनुजा / भ्रातृ प्रेम समझने वाले सारे बच्चे भले ही गलत कदम उठाकर, गलत अजाम का शिकार न होते हों, पर सही समय पर अपनी गलती को समझ कर, सही की तरफ कदम बढ़ा लेने वाले सुधारवादी भी मानसिक वेदना के शिकार तो होते ही हैं. कुछेक तो ऐसे भी होंगे जो अपने प्रेमपात्र से धोखा खाकर मानसिक संतुलन खो बैठते हैं. कुछ को तो इसके झटके लग जाते हैं कि उनकी नजर में उनका प्रेमपात्र तो ऐसा कभी था ही नहीं – उनका विश्वास तहस नहस हो जाता है. इसमें दोनों लिंगों के बच्चे शामिल होते हैं किंतु हमारे समाज की वजह से लड़कियों की समस्यायें ज्यादा उजागर होती हैं.

एक या अधिक बार ऐसा धोखा होने पर बच्चे धीरे - धीरे शृंगार के प्रति अनाकर्षित होने लगते हैं. उस पर शादी की उम्र आते - आते उन्हें जीवन की अन्य जरूरतें प्राथमिकता में आगे दिखने लगती हैं. जैसे... गाड़ी - बाड़ी का होना, जीवन व नौकरी में स्थिरता, प्रणय पात्र के प्रति पूरा भरोसा, बराबरी का दर्जा और भी बहुत कुछ. इनके चलते वे शादी को पीछे ढ़केलते जाते हैं या इसे अपनी इच्छाओं की सूची से हटा ही देते हैं. कुछ को तो शादी विवाह जैसे शब्दों से नफरत सी हो जाती है. प्रेम में धोखा होने पर तो इनकी संभावनाएं बहुत ज्यादा हो जाती हैं. साथ ही साथ वे शादी से बचने के बहाने ढूँढते हैं. जैसे एक उत्कृष्ट बहाना होता है कि माँ पिता बूढ़े हो रहे हैं और उन्हें बुढ़ापे की बीमारियाँ हो रही हैं इसलिए उनके लिए कोई चाहिए जो उनकी सेवा सुश्रुषा करता रहे. पर ऐसा करता कोई नही है. केवल बहाना चहिए होता है, शादी को नकारने का. उनके भेजे से यह तो निकल ही जाता है कि अभिभावक कितने भी सुहृदय (सहृदय) क्यों न हों, जीवन पर्यंत साथ तो रह नहीं सकते और जैसे आज बच्चे उनके जीवन में एक संगी का साथ निभाना चाहते है वैसा जीवन संगी की उनको भी जरूरत होगी.

इसलिए इन नई पीढ़ी के बच्चों से मेरा आग्रह है कि वे ऐसी धारणाओं में अपने आपको ना जकड़ें. यदि उनके जीवन में कोई अप्रिय घटना घटी है और उसे सही किया जा सकता है तो  कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है. कोशिश तो करनी ही चाहिए. लेकिन यदि ऐसा लगता है कि सुधार संभव नहीं है, तो उसकी सोच - सोच कर वर्तमान व भविष्य को भी खराब करने में कोई अकलमंदी नहीं है. बीते को भूल नए कदम उठाईए और अपनी बची जिंदगी को सार्थक बनाईए. मजे से जीवन सँवारिए.

आप को अपनी किसी गलती के लिए शर्मनाक होने की जरूरत नहीं है. ऐसा इंसान खोज के नहीं मिलेगा जिसने कभी गलती की ही न हो. किसी ने जिंदगी के किसी क्षेत्र में किया होगा तो किसी ने अन्य किसी क्षेत्र में. सब गलती करते हैं. वरना वे भगवान नहीं हो जाते ...???

जिंदगी के हर काम की तरह शादी भी अपने समय और काल से हो जाए तो बहुत अच्छा रहता है. आप भी खुश रहोगे, बच्चे भी खुश रहेंगे. जिंदगी के मजे रहेंगे. जच्चा – बहच्चा में कोई समस्या की साधारणतया संभावना नहीं रहेगी. और आप भी अपने बड़ों की तरह सेवानिवृत्ति तक सारी पारिवारिक जिम्मेदारियों से फारिग हो जाओगे.

एम आर अयंगर.
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हमारे समाज को संयुक्त परिवार से होने वाले कई लाभ उसके जाते ही नदारद हो गए हैं. किसी को उनका तुरंत आभास नहीं होता क्योंकि हर एक को हमेशा हर एक सुविधा की आवश्यकता नहीं होती. जब जब किसी को ऐसी सुविधा की आवश्यकता होती है या कहें जरूरत महसूस होती है, तब उसकी याद आती है कि हाँ यह भी एक सुविधा थी, जो अब नहीं है.
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