मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

मेरा आठवाँ प्रकाशन  / MY Seventh PUBLICATIONS
मेरे प्रकाशन / MY PUBLICATIONS. दाईं तरफ के चित्रों पर क्लिक करके पुस्तक ऑर्डर कर सकते हैंं।

शनिवार, 1 जून 2013

मानव प्रकृति

 

     मानव प्रकृति

सच के शोलों से भी, 

जो न जल सका,

उस झूठ-पाप को कोई, 

कैसे बयाँ करे.


झूठ की नावें तैर रहीं हैं, 

सच्चाई की धारा में,

सच की धारा ढँक सी गई है, 

झूठों के पतवारों से.



भ्रष्टाचार लगा दिखने अब, 

इंसानों के खून में,

छल-फरेब और लूट-पाट अब, 

आया सबके जुनून में.



जान गई और हुआ हादसा,

हम दूजे को बदनाम करें,

किसको फुरसत, फिर यह ना हो,

ऐसा कुछ इंतजाम करें.



नभ रोकर भी आंसू से,

धरती की प्यास बुझाता है.

सूरज क्रोधित हो गर्मी से,

धरती पर फसल पकाता है.



हरेक हाल में प्रकृति अपने,

मानव का भला किए जाए.

लेकिन खुद मानव को अपना,

भला कभी ना याद आए.



अपनी अपनी खिचड़ी खाकर,

स्वाद जगत का क्या जानें,

इंसानों कुछ सोचो खुद हम,

इंसां को कैसे पहचानें.

एम.आर.अयंगर.

गुरुवार, 30 मई 2013

रचना...??? ....


रचना 

किसने रचाया संसार,
किसने रचा जीव,
किसने जीवन बनाया
किसने इंसान को दिल,
और दिल को स्पंदन दिया.
किसने मन रचा और
मन को भावनाएँ दीं,

आज यह इंसान,
प्रकृति पर जीत चाहता है
यद वह सत्यापित करना चाहता है कि
रचनाकार की रचना से बढ़कर,
वह रच सकता है.

आज,
वह अपने रचयिता की रचना को,
ललकार रहा है.

मेंढ़क कुएं की दीवार को,
हर तरफ जाकर छू रहा है,
और समझता है कि,
मैं अब समुंदर की सीमाएं,
जान चुका हूँ.
.................................................

एम.आर.अयंगर.
  

       बूंदा - बांदी

  

   गुनगुनाते भँवरों को दोष मत देना,


    ये तो रंगत खिलती कली के गाते हैं,
 

    बाग में कली कोई जो खिल जाए,
   

    गा – गा कर ये खुशी हमें सुनाते हैं.
----------------------------------------------------------------      मानवता है गर्त में, मानव कौन बताए,
   तुलसी पर दीपक रखा, मंदिर दिया जलाय.
-----------------------------------------------------------------
   

    दूर खड़ी हो, नजरों के ये तीर भेद क्यों जाते हैं,
   

    निरख तुझे ना जाने कितने संदेशे मिल जाते हैं,
   

    नखरों की क्या कहूँ तुम्हारे, मन भटकन खो जाता है,
   

    अधर शांत हैं,पर नजरों का शोर सहा ना जाता है.
..............................................................................                   नर नारी तो समपूरक हैं,
         अनुपूरक हैं, परिपूरक हैं,          नारी नर की रंगत है औ
           नर नारी का संगत है.
           नर बिन नारी लगे अधूरी,
         नार बिना नर कब है पूरा,          वे पूरक हैं...           समपूरक हों, अनुपूरक हों,
           परिपूरक हों.. 

         पर पूरक हैं
===========================================एस.आर.अयंगर.

मंगलवार, 28 मई 2013

शुद्धता.

शुद्धता


आज पानी की कमी है,

कोयला पानी की कमी है,

तेल पानी की कमी है,

ऊर्जा पानी की कमी है,


फिर कुछ काल बाद...

ऐसा इक दिन होगा ...

जलते जलते सूरज का ह्रास होने लगेगा,

ह्रास का दर बढेगा तब मानव चेतना जागेगी,

फिर एक वक्त धूप नहीं मिलेगी,

प्रदूषण की प्रवृत्ति के कारण,

शुद्ध हवा भी नहीं होगी...

लेकिन ...

दूषित वातावरण में रहने का आदि यह मानव,

जो आज ठीक  से शुदध घी, दूध पचा नहीं पाता,

कल शुद्ध धूप और हवा का भी सेवन नहीं कर पाएगा.

वैसे सुनने में यह अतिशयोक्ति लग सकती है,

पर दिल में झांक कर देखो, सामने अंधकार नजर आएगा.
================================================

अम्मी की अठन्नी

अम्मी की अठन्नी

आठ बरस की उम्र में ,
अम्मी की अंटी से
अठन्नी चुराना और,
उस पर अब्बू का
आड़े हाथों लेना,
आज भी याद है.

अठारह की उम्र तक अठन्नी.
तिजोरी बन गई होती,
और उठाने की आदत शायद,
सलाखों के पीछे, पटक देती.
या कोई अजनबी अबू आजम,
आड़े डंडे लेता,
या फिर कोई और अठन्नी छाप,
चाकू छुरा भोंक जाता.

अठाईस की उम्र तक,
आधा रुपया शायद,
पूरी रूपसी बन गई होती,
और उठाना शायद,
उठने का पर्याय बन गया होता.
तो क्या भैया पापा, मौसा ताऊ,
हाथ पर हाथ धरे, मुँह बाए बैठे रहते ?
कत्ल से कम का इल्जाम
न लेते, अपने ऊपर.
या फिर बाजुओं की पोटली
रख जाते बाजू में.

उस समय अब्बू ने,
अठन्नी के आईसक्रीम की मिठास को,
कड़वाहट में बदल दिया,
लेकिन इससे जीवन की
कितनी कड़वाहटें थम गई
और मिठास में बदल गईं,
मैं गिन नहीं सकता.

अगर ऐसा न हुआ होता,
तो अठन्नी उठाने की आदत पनपती,
और न जाने कहाँ कहाँ से
क्या क्या उठ जाते.
कितने होनहार ,
अठन्नी उठाने वाले,
हुनरवार बन जाते,

अड़तालीस और अठावन की उम्र में,
बचपन की यादें, रुक रुक कर लौटती हैं.
अब की समझ से बचपन निहारा जाता है.
असलियत का आभास कराता है कि, किस तरह
तब की सोच और अब की सोच में फर्क है.

अब इस उम्र में अब्बू जान को
कैसे, किस मुँह से धन्यवाद दूं.
समझ नहीं आता,
दिल ही दिल में उनका शुक्रिया अदा करता हूँ.
और ता उम्र उनके संगत की कामना करता हूँ.

बचपन के कई निर्णय आज भी अचंभित करते हैं,
कि उस कच्ची उम्र में कितनी मूर्खतापूर्ण कार्य़ किए,
और कभी इसलिए कि ...उसी कच्ची उम्र में भी.
इतने अच्छे निर्णय लिए गए.

अब्बू अगर ख्याल नहीं करते, तो
आखिरकार यही होता कि,
आप इस वक्त ,यह
न पढ़ रहे होते,
न मैं होता और
न ही मेरी यह रचना होती.

----------------------------------------------------

रविवार, 26 मई 2013

चौदहवीं का चाँद


चौदहवीं का चाँद


सन् 60 में मेरे घर पहली बार रेडियो बजा,

पहला गाना था ..

चौदहवीं का चाँद हो... या आफताब हो...

गीत लाजवाब था,

मन में तमन्ना जागी,

और चले एक चेहरा खोजने,

जिससे कहा जाए..

.. चौदहवीं का चाँद हो...


लेकिन बदकिस्मती साथ लग गई,

जवानी की देहरी पर आने के पहले ही..

नील आर्मस्ट्राँग ने चाँद पर अपने कदम धर दिए.


फिर न जाने कितने चेहरे मिले,

मन हुआ कहा जाए..

चौदहवीं का चाँद हो..

लेकिन हर वक्त एक टीस उठती थी मन में,

कि चाँद पर किसी ने कदम धर दिए हैं,

और तमन्ना अधूरी रह जाती,


ऐसे ही ना नुकुर में जवानी के पार हो गए,

पहले अधेड़, फिर बुढ़ापे की तरफ नजर कर गए,

किसी को तो चौदहवीं का चाँद नहीं कह पाए,


लेकिन कुँआरे ही बुढ़ापे का चाँद पा गए.

--------------------------------------------------------------------
एम आर अयंगर.