मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

आँचल..


           जब जब तेरी छाया,
             इस धरती पर पड़ी,
           तब तब मेरे सर पर,
             आँचल की छाँव पड़ी.

           तुम गीत पुराना मत गाओ,
           मेरे अँसुअन को मत बहकाओ,

           गीत के पुराने गायक की याद आती है,
           आँखें चाह कर भी उन्हें देख नहीं पाती हैं.

           वो भी कितने प्यारे दिन थे,
              जब वह यह गीत सुनाती थी.
           आँखों से गंगा की धारा,
              झरझर बहती जाती थी.

           नहीं संग है आज वो मेरे,
              यादें मुझे रुलाती हैं,
           बंद नयन में बाहें उनकी,
              झूला मुझे झुलाती हैं

           पास नहीं है आज वो  मेरे,
           संग हमेशा है,
           मेरे पर इक इक शब्द कथन में,
           उनका संदेशा है.

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           खनन खनन कर हम धरती की,
              कोख कर रहे खाली,
           धन अर्जन की होड़ में जैसे ,
              हम वन गए मवाली.

           हद गर इसकी पार कर गए,
              धरती भी डोलेगी,
           उथल पुथल को नियमित करने,
              धरती भी डोलेगी,

              भूकंपन का नाम सुना है,
              धरती रोष दिखाती है,
              तेरा ऐसा रूप न देखा ,
              केवल सहती जाती है.
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बुधवार, 29 अगस्त 2012

वैसे तो टीटोटालर हूँ


दारू शराब सब लत ही है,
करती खराब दौलत ही है,
होता है असर सेहत पर भी
पड़ती है मगर आदत फिर भी,

जब मुफ्त मिलेगी तो यारों,
क्यों हद की बात करो यारों,
जितनी आती है आने दो,
ऐसे ही रात बिताने दो.

फोकट में मिलेगी तो बोलो,
जो भी हो बोतल खोलो,
कुछ फर्क नहीं पड़ता हम-दम,
हो ठर्रा विस्की या हो रम.

काजू किशमिश तो आएँगे,
अंडे, नमकीन मँगाएँगे,
चिल्ली-चिकन भी मँगवालो,
फ्राई-पनीर भी करवालो.

जब तक जेबें हैं भारी,
कब कौन कहाँ है लाचारी, मेरी
अंटी को हाथ लगाना मत,
आंटी को कुछ बतलाना मत.

दो चार पेग जो बढ़ जाएँ,
थोड़ी मुश्किल में पड़ जाएँ,
वो बने डाक्टर बैठे हैं,
क्यों फीस ये इतने ऐँठे हैं.

ये दवा ठीक कर जाएँगे,
पैसे वापस मिल जाएँगे,
फिर हर्ज ही क्या है पीने में,
मस्ती मस्ती में जीने में.

बस एक बात का ध्यान रहे,
अपने बड़ों का मान रहे,
माँगो मत पैसे खाने के,
पीने और पिलाने के.

वैसे तो टीटोटालर है...

एम.आर.अयंगर. /  290812.

मंगलवार, 21 अगस्त 2012


दशहरा

रावण - लंकापति नरेश,
अब क्या रह गया है शेष ?
त्रिलोकी ब्राह्मण, त्रिकाल पंडित,
अतुलनीय शिवोपासक,
क्या सूझी तुझको ?
क्यों लाया परनारी ?
कहलाया अत्याचारी, व्यभिचारी.

रामचंद्र जी के लंकाक्रमण हेतु,
सागर पुल के शिवोपासना में,
प्रसंग पाकर भी, ब्राह्मणत्व स्वीकारा,
अपना सब कुछ वारा !!!

राजत्व पर ब्राह्मणत्व ने विजय पाई,
यह कितनी दुखदायी !!!
अपना नाश विनाश जानकर भी,
तुम बने धर्म के अनुयायी  !!!

यह धर्म तुम्हारा कहाँ गया?
जब सीता जी का हरण किया.
शूर्पणखा के नाक कान तो,
लक्ष्मण ने काटे थे,
क्यों नहीं लखन को ललकारा ?
क्या यही था पुरुषार्थ तुम्हारा ?

शायद तुमको ज्ञान प्राप्त था,
दूरदृष्टि में मान प्राप्त था,
त्रिसंहार विष्णु के हाथों,
श्राप तुम्हारा तब समाप्त था.


कंस-शिशुपाल, कृष्ण सें संहारे गए,
हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप, नृसिंह से संहारे गए,
अब रावण–कुंभकर्ण की बारी थी,
सो राम से संहारे जाने की तैयारी थी,
वाह जगत के ज्ञाता,
जनम जनम के ज्ञाता,
अपना भविष्य संवारने हेतु,
वर्तमान दाँव पर लगा दिया ?

श्राप मुक्त होकर तुम फिर,
देव लोक पा जाओगे,
इस धरती पर क्या बीते है,
इससे क्यों पछताओगे.?

इसालिए इस लोक पर अपना ,
छाप राक्षसी छोड़ गए,
पर भूल गए तुम भारतीय को,
कब माफ करेगी यह तुमको?
स्मरण करोगे इस कलंक को,
सहन करोगे युग युग को.

अब भी भारत की जनता के,
है धिक्कार भरा मन में,
दसों सिरों संग बना के पुतले,
करती खाक दशहरा में.

.................................................

चाँद पाना चाहता हूँ.

चाँद पाना चाहता हूँ...

मैं चला अब चाँद लाने...
पांव धरती पर टिकाकर,
कद नहीं चाहूं बढ़ाना,
छोड़ना धरती न चाहूं,
किस तरह संभव करूं मैं,
सोचकर मन मारता हूं
चाँद लाना चाहता हूँ.

पूरबी संस्कृति को छोड़ना संभव नहीं,
बालपन से वृद्धता तक मैं तो बस इसमें पला हूँ,
सभ्यता पश्चिम में मैं,
जीवन के मजे को देखता हूँ,
चाहता दोनों सँजोना,
नाव दोनों पर सवारी  !!!
सोचकर मन मारता हूँ,
मैं तो खुद से हारता हूँ.

बैठकर अपने नगर में,
पेरिसों के ख्वाब देखूं,
सोचता हूँ सोच भर से,
मैं वहां तक पहुँच जाऊं
अपने नगर की मस्तियों से,
वंचित नहीं होना है मुझको,
पर चाहिए जग के मजे भी,
मैं नहीं चाहूँ सफर की यातनाएं,
क्यों सफर के जोखिम उठाऊं,
सफर में क्या क्या न गुजरे,
सोचकर मन मारता हूँ,

कुछ न खोना चाहकर मैं,
हर चीज पाना चाहता हूँ,
खुद मैं अपनी मूर्खता को,
सोचकर मन मारता हूँ,

पर चाँद पाना चाहता हूँ.

सोमवार, 4 जून 2012

मेरा प्यार.


मेरा प्यार.

                मैंने एक शख्सियत से प्यार किया.
                लेकिन इजहार करने से डरता हूं
                इसलिए नहीं कि इस जमाने में,
                प्यार करना जुर्म है,
                बल्कि इसलिए कि मेरा प्यार
                जमाने के प्यार की परिभाषा से अलग है.

               इसमें रोमांस नहीं है,
               लेश मात्र भी सेक्स नहीं है,
               और जो है,
               वह आज की परिभाषा में,
               शायद प्यार ही नहीं है.


               जब बिटिया थी,
               नहला –खिला कर,
               स्कूल भेजता था,
               फिर बड़ी होती गई,
               घुमाने ले जाता रहा,
               पढ़ाता रहा,
               खिलाता रहा,

               और बड़ी हो गई,
               उसके शौक पूरे करने में,
               मदद करता रहा,
               तकलाफें आईँ,
               पर शिकन न हुई,

              प्यार में कभी तकलीफ नहीं हुआ करती,
              प्यार में दीवानापन सर चढ़कर बोलता है,
              इसका गम नहीं होता कि मैंने क्या खोया,
              पर इसकी दूनी खुशी होती है,
              कि मेरे प्यार ने क्या पाया.
  
              और बड़ी हो गई,
              पढ़ाई पूरी हो गई,
              रिश्तों की बातें चल पड़ी,
              उसने अपने प्यारे से भी मुझे मिलाया,
              बड़ों के चयन से भी परिचय कराया,
              मेरा फैसला माँगा,
              और चुपचाप उस पर अमल कर लिया.

              उस दिन मैंने समझ लिया,
              मेरा प्यार कितना सच्चा है,
              इस बड़े से शरीर में कितना छोटा बच्चा है,
              जो मासूमियत को अब भी पहचानता है,

            और दिल को गहराईयों तक जानता है,
            दिल को दिल से समझने में कितनी महानता है.

              आज भी मेरा प्यार मेरा ही है,
              शायद यह इंसान की स्वार्थता है,
              मैंने अब भी कोई खून का रिश्ता नहीं जोड़ा,
              रिश्ता दिल से दिल का है,

              यही मेरे प्यार की परिभाषा है,
              मेरा प्यार पाने में नहीं देने में है,
              जीवन की वो घड़ियाँ, जिन्हें लोग,
              अपनों के लिए सँजोए रखते हैं,
              मैनें प्यार पर सजा दिए,

              आज की परिभाषा में,
              प्यार-और-रोमांस अभिन्न अंग हैं,
              जहाँ देखो दोनो संग संग हैं,
              ममता, ममता है प्यार नहीं है,
              भाई बहन से राखी बँधवाता है,
              पर प्यार नहीं करता,

              ममता मातृत्व का मर्म है,
              वात्सल्य जननी का धर्म है,
              और प्यार ...
              जवाँ दिलों के संग संग धड़कने,
              से उत्पन्न मनमोहक साज हैं.

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एम.आर.अयंगर.
9425279174;8462021340

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

राष्ट्र.. राष्ट्रपति... और राष्ट्रपिता.....

                                                   










                           हमारा देश...एक राष्ट्र है.


                           ......... राष्ट्र.........


                           
                           हमारे देश में ...


                           एक राष्ट्र पिता हैं...

                           और एक राष्ट्र पति ....

                      
                           एक बच्चे ने तो पूछ ही लिया कि

                           महात्मा को राष्ट्र पिता बनाने के रिकॉर्ड बताएं ..

                           सरकार के पास कुछ भी तो नहीं मिला...

                           नाम से तो यही प्रतीत होता है कि 



                           राष्ट्रपति, राष्ट्रपिता के दामाद हैं...

                         

                           लेकिन अब तो ..................
              
                           राष्ट्रपति भी नारी हैं...
                                    
                           इसका विष्लेषण कैसे करें...







                          एम.आर अयंगर. 

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

वार


 वार

तुम नजरों ही से बोला करो,
तुम्हारे जुबाँ की फितरत,
कुछ और होती है,
नजरों से बयाँ करने की अदा,
जुबाँ में नहीं मिलती.

जुबाँ से किया हुआ वार,
अश्लीलता की बौछारें लिए आता है,
और नजरों की कटारी का मारा वार भी,
तुम्हारी अदाओं पर मर जाता है.

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

बिछना - बिछाना


बिछना - बिछाना.

जमाना बदल रहा है.
काफी बदल गया है.
लेकिन बिछने की आदत अभी कायम है.
पहले आँखें बिछाते थे,
नजरें बिछाते थे,
फिर कालीने बिछने लगीं ,
लोगों को फख्र महसूस होता था,
लोगों को हर्ष महसूस होता था,
जब किसी प्रतिभावान स्त्री- पुरुष के समक्ष,
साष्टांग प्रणाम करने,
बिछ जाने को,
कतार लगती थी,

अब भी लोगों को फख्र महसूस होता है,
अब भी लोगों को हर्ष महसूस होता है,
लेकिन अब नजारा और है,

कि अब हम न ही बिस्तर बिछाते हैं,
न ही हम कालीनें बिछाते हैं,
न ही नजरे इनायत बिछाई जाती है,
हम बिछाने में विश्वास नहीं करते ....

हम तो खुद ही बिछ जाते हैं.


एम.आर.अयंगर.
09425279174.